13 September, 2014

तुमने तब तब छेद किये है, जब जब हमने थाली दी|



ओ जन्नत के वाशिंदों,अब क्यों इतने लाचार हुए,
कहाँ तुम्हारी पत्थर ईंटे,कहाँ सभी हथियार हुए,
कहाँ गया जेहाद तुम्हारा,पाक परस्ती कहाँ गयी,
कहाँ गए वो चाँद सितारे,नूरा कुश्ती कहाँ गयी,
कहाँ गयी बाज़ार की बंदी,दीन के फतवे कहाँ गए,
केसर कहवा,सेब और अखरोटी रुतबे कहाँ गए,
पुन्य हिमालय की छाया में रहकर उसको गाली दी,
तुमने तब तब छेद किये है जब जब हमने थाली दी,
खूब जलाया ध्वजा तिरंगा,झंडा हरा उठाया था,
लाल चौक पर जब जी चाहा तब कोहराम मचाया था,
भारत के फौजी न तुमको फूटी आँख सुहाए थे,
नारे मुर्दाबाद हिन्द के तुमने रोज लगाए थे,
कुदरत कुछ नाराज़ हुयी तो,अल्ला अकबर भूल गए,
दाढ़ी टोपी तकरीरें,लाहौर पिशावर भूल गये,
अब क्यों चढ़े छतों पर घर की,क्यों झोली फैलाए हो,
जिन आँखों में नफरत थी क्यों उनमे आंसू लाये हो,
अरे मोमिनो,क्या अब भी आँखों पर पत्थर छाये है,
देखो,काफिर फौजी तुमको रोटी देने आये हैं,

कश्मीर के हालात पर एक कविता-----  म्हणून  आज वॉट्सऍपवर  एक कविता आली आणि पुन्हा जुन्या जखमा दुखायला लागल्या. ‘सायमन परत जा’ सारखं ‘Go Back Indian’ असे शब्द श्रीनगरच्या काळ्या गुळगुळीत रस्त्यावर मी ऑगष्ट २०१० मध्ये वाचले होते. तो रस्ताही आपल्या बॉर्डर रोड ऑर्गनायझेशनने बांधला होता. जम्मू-काश्मिरचाच एक भाग असलेल्या लडाखमध्ये तेव्हा ढग फुटीने हाहाकार माजला होता. श्रीनगरला एक दिवस थांबून पुढे लडाखला चाललो असताना हे वाचायला मिळालं. लडाखींना मदत तर सोडाच पण तिथे श्रीनगरमध्ये कडकडीत बंद पाळला जात होता. रस्त्यावरून चालणार्‍या एखाद दुसर्‍या  वाहानाला लक्ष केलं जात होतं.

आजपर्यंत कधीही श्रीनगरला गेलं की मनापासून स्वागत झालं नाही, की पैसे दिले म्हणूनतरी त्याला जागण्याची वृत्ती नाही. आता श्रीनगरमध्ये जलप्रलय आला आहे तरी दुशणं भारतवासीयांनाच मिळत आहेत, मिळणार आहेत. मग प्रतिक्रीयाही तशीच असणार. वरील कविता ही प्रातिनिधीक प्रतिक्रीया म्हणावी लागेल. 

या जवानाचा अभिमान वाटतो. 

स्वत:च्या जीवाची पर्वा न करता नदीवर पुल बांधणारे जवान  


आपल्याच देशात या घरभेद्यांमुळे असे फलक पहावे लागतात.  

नजरेनेच शिवी हासडणारे असे हजारो आहेत.

केवळ यांच्यामुळे 'काश्मिर हमारा है'

पंचवीस वर्षं होत आली ही काश्मिरी पंडीतांची घरं ओस पडलीत. तेव्हापासून तिथे महापूरच आहे पण तो व्देषाचा.   

काश्मिरी पंडीतांवर आफत कोसळली पण ती यांची.   

तीच पिलावळ आता अशा कठीण प्रसंगीही मदत न करता फक्त व्देश पसरवत आहे. 

3 comments:

  1. तरीही आम्हाला यांची काळजी वाटते. वाचा : http://prabhunarendra.blogspot.in/2014/09/blog-post.html
    यांचं काय झालं?

    ReplyDelete
  2. https://www.facebook.com/rajivdixitnews/posts/272404696300845

    ओ जन्नत के वाशिंदों,अब क्यों इतने लाचार हुए,
    कहाँ तुम्हारी पत्थर ईंटे, कहाँ सभी हथियार हुए,
    कहाँ गया जेहाद तुम्हारा, पाक परस्ती कहाँ गयी,
    कहाँ गए वो चाँद सितारे, नूरा कुश्ती कहाँ गयी,
    कहाँ गयी बाज़ार की बंदी, दीन के फतवे कहाँ गए,
    केसर कहवा, सेब और अखरोटी रुतबे कहाँ गए,
    पुन्य हिमालय की छाया में रहकर उसको गाली दी,
    तुमने तब तब छेद किये है जब जब हमने थाली दी,
    खूब जलाया ध्वजा तिरंगा, झंडा हरा उठाया था,
    लाल चौक पर जब जी चाहा तब कोहराम मचाया था,
    भारत के फौजी न तुमको फूटी आँख सुहाए थे,
    नारे मुर्दाबाद हिन्द के तुमने रोज लगाए थे,
    कुदरत कुछ नाराज़ हुयी तो, अल्ला अकबर भूल गए,
    दाढ़ी टोपी तकरीरें, लाहौर पिशावर भूल गये,
    अब क्यों चढ़े छतों पर घर की, क्यों झोली फैलाए हो,
    जिन आँखों में नफरत थी क्यों उनमे आंसू लाये हो,
    अरे मोमिनो, क्या अब भी आँखों पर पत्थर छाये है,
    देखो, काफिर फौजी तुमको रोटी देने आये हैं,
    कब तुमने इस भारत माँ को अपनी माता माना था,
    और कहाँ कब संविधान को भाग्य विधाता माना था,
    कब तुमने जन गण मन में अपनी आवाज़ मिलाई थी,
    गीत मातरम वन्दे में कब अपनी जन्नत पायी थी,
    कब तुमने दीवाली पर चाहत के दीप जलाए थे,
    कब होली पर अमन चैन के रंग यहाँ बरसाए थे,
    कब तुमने अब्दुल हमीद की शौर्य कथाएं गायीं थीं.
    कब बोलो अब्दुल कलाम की तस्वीरे लहरायीं थी,
    तुमको तो हाफ़िज़ सईद के बोल सुहाने लगते थे,
    फटे फटे अजहर मसूद के ढोल सुहाने लगते थे,
    केवल जन्नत की हूरों का इल्म सदा आबाद रहा,
    तुमको तो बस फिलिस्तीन, ईराक, सीरिया याद रहा,
    सचिन कभी न भाये तुमको अजमल अकमल याद रहे,
    भूल गए अशफाक हमेशा अफज़ल भटकल याद रहे,
    अमरनाथ में तुमने ही तो लंगर खूब जलाएं है,
    इसीलिये तो लंगर में अब खाने के दिन आये हैं,
    देश का दाना पानी खाकर जब जब देश भुलाओगे,
    इसी तरह तुम बारिश में पानी पानी हो जाओगे
    मत सोचो मैं नफरत वाले बीज उगाने आया हूँ,
    या फिर हिन्दू को मुस्लिम से ही लड़वाने आया हूँ..
    मैंने बस वो पीर कही जो अन्दर अन्दर रोती है,
    क्यों जन्नत में जन्नत जैसी बात फरेबी होती है,
    चलो काश सैलाब तुम्हारे दाग सभी धो डाले जी.
    आँखों पर नफरत का चश्मा उसको आज निकाले जी,
    जिनसे तुमको नफरत थी वो प्यार लुटाने आये हैं,
    देखो काफिर फौजी तुमको रोटी देने आये हैं
    ------------- कवि गौरव चौहान mob. 09457678378... 9557062060(whats aap)
    ( विशेष निवेदन-मैं कवि सम्मेलनों में कम जा पा रहा हूँ अतः इसका फायदा उठाकर कोई राष्ट्रिय कवि हमारी इस कविता को मंच पर न पढ़ दे... क्योंकि पता चल गया तो इस बार गोली मार दूंगा... कसम से )
    © All rights reserved by gaurav singh chauhan

    ReplyDelete

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails
 

Design in CSS by TemplateWorld and sponsored by SmashingMagazine
Blogger Template created by Deluxe Templates Tested Blogger Templates